Saturday, 26 November 2016
Thursday, 24 November 2016
मैं तेरे शहर से दूर जा रहा हूँ ......
यह कौन सा दर्द है जो लिए जा रहा हूँ
तू है यहां और मैं वहां जा रहा हूँ .....
इसे मिलने के लिए बिछड़ने का बहाना समझूँ
या फिर हमेशा के लिए दूर जा रहा हूँ .....
तुझे भुलाने की कोशिशें की मैंने हजार ,
बनाये कई अफ़साने की हो जायूँ दूर हर बार
हर बार दुरी ने जैसे खिंचा मुझे तेजी से तेरी तरफ
हर बार ऐसे बिना मर्ज़ का दर्द लिए जा रहा हूँ ....
मैं तेरे शहर से दूर जा रहा हूँ ......
By
Kapil Kumar
तू मिली भी तो इस तरह से ......
तू मिली भी तो इस तरह से ......
तू मिली भी तो इस तरह से ,की तुझे जी भरकर देख नहीं पाया
कैसे कुम्लाहा रही है धीरे धीरे, यह चाह कर भी कह नहीं पाया
तू मिली भी तो इस तरह से, कुछ चाह कर भी कह नहीं पाया ....
तू किस कदर जकड़ी है , अपने रिश्तो की जंजीरों में
बेबसी और समाज की कि उंची दीवारों की शहादतों में
तेरी इस क़ैद को देख , जैसे मेरा दिल जिस्म से निकल आया
कैसे कर दूँ अपनी मोहब्बत का इज़हार , यह मैं समझ नहीं पाया
इन सब के बीच जैसे तेरा सिन्दूर उभर आया
तू मिली भी तो इस तरह से, कुछ चाह कर भी कह नहीं पाया ....
दिल में थी बहुत उमंग तेरी नरगिसी सी आँखों में झाँकने की
थी बड़ी चाहत तुझे बांहों में भर कर चूमने की
सोचा था लहराती जुल्फों की थोड़ी सी तारीफ़ कर दूँ
कैसे खिलते गुलाब से कपोल है उनकी गहराई भर लूँ
इन अहसासों को मैं ,बड़ी मुश्किल से कुचल पाया
तू मिली भी तो इस तरह से, कुछ चाह कर भी कह नहीं पाया ....
थी बड़ी चाहत की कुछ ऐसी गुफ़्तगू कर लूँ
कुछ अपने दिल की तो कुछ तेरे दिल की सुन लूँ
चूम कर तेरे होठों को थोड़ी सी मस्ती कर लूँ
भर कर तुझे बांहों में , कुछ जिस्म में गर्मी भर लूँ
ऐसे ख्यालातों को भी मैं , कुछ तवज्जो नहीं दे पाया
तू मिली भी तो इस तरह से, कुछ चाह कर भी कह नहीं पाया ....
देखा तो तेरा बदन मैंने सिर्फ एक झरोखे से
नापा भी आँखों का पैमाना बस छलकते जाम से
कितनी मतवाली है तेरी चाल और कितने कठोर है तेरे यह ढाल
इसका फैसला मैं कर नहीं पाया
तू मिली भी तो इस तरह से, कुछ चाह कर भी कह नहीं पाया ....
तेरी बेतरबा हंसी की वह मीठी सी खनक
मेरी हर बात पर शर्माने और इतराने की हनक
बात बात पर मुझे छेड जाने की सनक
इन अहसासों को जैसे मैं , कोई अल्फाज़ दे नहीं पाया
तू मिली भी तो इस तरह से, कुछ चाह कर भी कह नहीं पाया ....
फिर भी तुझसे मिलकर जैसे जिन्दगी ने एक नया गीत गया
भटकते मुसाफिर को भी मिलेगी मंजिल ,ऐसा उसे अहसास आया
प्यासे तरसते लवों पर , तेरी मीठी मुस्कान का सकून आया
जो जिन्दगी चल रही थी धीरे धीरे , उसमे जैसे एक जोश आया
एक दिन तू होगी मेरी , यह अहसास जैसे उभर आया
तू मिली भी तो इस तरह से, कुछ चाह कर भी कह नहीं पाया ....
By
Kapil Kumar
Note: “Opinions expressed are those of the authors, and are not official statements. The resemblance to any person, incident or place is purely coincidental”. The Author will not be responsible for your deeds.
Tuesday, 22 November 2016
तुझे ऐतबार नहीं.....
तुझे ऐतबार नहीं मेरी वफ़ा
का , इसलिए तो अभी भी दामन थाम कर चलती है
तुझे दोष क्यों दूँ तेरी बेवफाई का ,की तू अभी भी किसी और के दिल में धड़कती है
मुझे तो आदत है यूँ भी अपना सर झुकाने की , तेरे आगे झुक जाऊं तो फिर तेरी आह क्यों निकलती
है
तू भी कुचल कर निकल जाना
मेरा दिल , बिना किसी अहसास के
यह बात और है , की मेरे दिल
में धड़कन तेरे नाम की अब भी धडकती है .....
शायद मंजूर ना था , तुझसे
मेरा मिलना इस ऐले खुदा को
ऐसा भी कभी होता है ,की सबके
घर में खिली सूरज की धुप हो
पर किसी बदनसीब के घर ,
सिर्फ छाँव ही अपना दामन समेटती है ......
मेरा आना , चले जाना और
फिर से आना , तो जीवन का बस एक नियम है
इस नियम से ही तो हम सबका जीवन गतिमान है
फिर तेरे सीने में क्यों
उठता यह अजीब सा तूफ़ान है
की कहीं उठते उमंग के
शोले , तेरे दामन को ना जला दे
शायद तुझे ऐतबार मुझपर तो
है , पर खुद पर नहीं यक़ीन है .....
तेरी रुसवाई से मैं अपनी जिद्द मिटा लूँ
देकर तुझे दर्द मैं अपने
होठों पर मुस्कान सजा लूँ
ऐसी शाहदत मेरे बस में
नहीं है
तू खुश रह अपने खवाबघर
में हमेशा
मुझे तो वैसे
भी भटकने की आदत सी पड़ी है ......
गर मिला खुदा जन्नत में तो उससे इस बेरहमी का हिसाब मांगूंगा
तेरे बिना जीने से भी , क्या जहन्नुम की सज़ा बड़ी है
है अगर जन्नत यही तेरे आशियाने की
क्या उस जन्नत में तू
मेरी महबूबा बनकर खड़ी है
जब तू ही नहीं इस जन्नत
में तो ,यह जन्नत नहीं दोज़ख है
तो फिर दोज़ख की सजा ,
मेरे लिए क्यों हर जन्नत में भी बनी है ...
By
Kapil Kumar
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