तुझे ऐतबार नहीं मेरी वफ़ा
का , इसलिए तो अभी भी दामन थाम कर चलती है
तुझे दोष क्यों दूँ तेरी बेवफाई का ,की तू अभी भी किसी और के दिल में धड़कती है
मुझे तो आदत है यूँ भी अपना सर झुकाने की , तेरे आगे झुक जाऊं तो फिर तेरी आह क्यों निकलती
है
तू भी कुचल कर निकल जाना
मेरा दिल , बिना किसी अहसास के
यह बात और है , की मेरे दिल
में धड़कन तेरे नाम की अब भी धडकती है .....
शायद मंजूर ना था , तुझसे
मेरा मिलना इस ऐले खुदा को
ऐसा भी कभी होता है ,की सबके
घर में खिली सूरज की धुप हो
पर किसी बदनसीब के घर ,
सिर्फ छाँव ही अपना दामन समेटती है ......
मेरा आना , चले जाना और
फिर से आना , तो जीवन का बस एक नियम है
इस नियम से ही तो हम सबका जीवन गतिमान है
फिर तेरे सीने में क्यों
उठता यह अजीब सा तूफ़ान है
की कहीं उठते उमंग के
शोले , तेरे दामन को ना जला दे
शायद तुझे ऐतबार मुझपर तो
है , पर खुद पर नहीं यक़ीन है .....
तेरी रुसवाई से मैं अपनी जिद्द मिटा लूँ
देकर तुझे दर्द मैं अपने
होठों पर मुस्कान सजा लूँ
ऐसी शाहदत मेरे बस में
नहीं है
तू खुश रह अपने खवाबघर
में हमेशा
मुझे तो वैसे
भी भटकने की आदत सी पड़ी है ......
गर मिला खुदा जन्नत में तो उससे इस बेरहमी का हिसाब मांगूंगा
तेरे बिना जीने से भी , क्या जहन्नुम की सज़ा बड़ी है
है अगर जन्नत यही तेरे आशियाने की
क्या उस जन्नत में तू
मेरी महबूबा बनकर खड़ी है
जब तू ही नहीं इस जन्नत
में तो ,यह जन्नत नहीं दोज़ख है
तो फिर दोज़ख की सजा ,
मेरे लिए क्यों हर जन्नत में भी बनी है ...
By
Kapil Kumar