जिनको समझ रहा था मैं अपना , वह तो गैरों से भी बदतर निकले
ढूंड रहा था बड़ी शिद्दत से मैं उस शक्श को
जिसने मारी थी ठोकर कभी मेरे दिल को
वह किसी और के नहीं , अपनों के पैर निकले .....
इमान , वफ़ा ,ग़ैरत और मोहब्बत ढूंड रहा था मैं इंसानों में
सारे इंसा इन सबसे बहुत ही जुदा निकले
यह बाते भी निकली तो सिर्फ किताबों की
हकीकत मैं तो यहां के इन्सान ,जानवरों से भी बदतर निकले .....
क्या दौलत , क्या शोहरत और क्या इज्जत
क्या किसी मोहब्बत से ज्यादा बेशकीमती है
बेचने गया जब इस मोहब्बत को यहां के बाज़ार में
इसके खरीददार तो बहुत ही गरीब निकले .....
मैं तो चला जायूँगा होकर रुसवा तेरी इन गलियों से
रख लूँगा पत्थर अपने कलेजे पर
समझ कर तुम सबको अपना बदनसीबी से
पर तूम कैसे निकलोगे बाहर अपनी इन तंग गलियों से
है कितनी जरूरत हर किसी को अंत में
दो गज़ जमीन और कपडे की
या फिर दो मन लकड़ी में बस जलने की .....
जिनको समझ रहा था मैं अपना , वह तो गैरों से भी बदतर निकले
ढूंड रहा था बड़ी शिद्दत से मैं उस शक्श को
जिसने मारी थी ठोकर कभी मेरे दिल को
वह किसी और के नहीं , अपनों के पैर निकले .....
इमान , वफ़ा ,ग़ैरत और मोहब्बत ढूंड रहा था मैं इंसानों में
सारे इंसा इन सबसे बहुत ही जुदा निकले
यह बाते भी निकली तो सिर्फ किताबों की
हकीकत मैं तो यहां के इन्सान ,जानवरों से भी बदतर निकले .....
क्या दौलत , क्या शोहरत और क्या इज्जत
क्या किसी मोहब्बत से ज्यादा बेशकीमती है
बेचने गया जब इस मोहब्बत को यहां के बाज़ार में
इसके खरीददार तो बहुत ही गरीब निकले .....
मैं तो चला जायूँगा होकर रुसवा तेरी इन गलियों से
रख लूँगा पत्थर अपने कलेजे पर
समझ कर तुम सबको अपना बदनसीबी से
पर तूम कैसे निकलोगे बाहर अपनी इन तंग गलियों से
है कितनी जरूरत हर किसी को अंत में
दो गज़ जमीन और कपडे की
या फिर दो मन लकड़ी में बस जलने की .....
By
Kapil Kumar
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