बचपन की बातें अक्सर जवानी में उभर आती है
कोई हमें हंसाती है तो कोई आँखे नम कर जाती है
ऐसी ही तेरी नादानी मुझे आज भी याद आती है
जब कुछ अध् पके से फल और अपनी शान के लिए
अपनी सहेली के बहकावे में आकर
बिना सोचे समझे झट पेड़ पर चढ़ जाती थी
फल तो तू बहुत तोड़ लेती थी
पर नीचे आते हुए घबराती थी .......
ऐसे में तेरी सहेली , सारे फल समेट कर चुपके से निकल जाती थी
उसको जाते देख तू घबराहट में रोने लग जाती थी
बचपन की वह भोली शरारत जवानी में भी तुझपर चढ़ी है
कल तक तू कुछ फलों के लिए पेड़ पर चढ़ जाती थी
आज तू अपने दिल को झूठी तसल्ली देने के लिए
अहं के पेड़ पर चढ़ी है .......
इस पेड़ पर तुझे ,कुछ पलो की झूठी ख़ुशी तो मिली है
पर नीचे उतरते हुए तू डरने लगी है
अहं के पेड़ के नीचे तुझे अवसाद की घाटी नजर आती है
जिसपर गिरने की कल्पना से ही तू पलके भिगोने लगी है
कोई नीचे तेरी हंसी को समेटे खड़ा है
यह वह नहीं जो तुझे अकेला छोड़कर चला है .....
मैं तुझे यूँ ऊपर से नीचे ना गिरने दूंगा
ना ही मैँ तुझे इस अहं के पेड़ पर अटका रहने दूंगा
मेरा हाथ तुझे नीचे उताराने के लिए इंतजार में है
पर यह बात तू कभी ना भूलना
हर काम का एक वक़्त मुक़र्रर होता है
उसके बाद उसका होना सिर्फ वादा भर निभाना होता है
इन झूठी शान और ख़ुशी के लिए
इस अहं के पेड़ पर चढ़ना छोड़ दे
कभी असली ख़ुशी से दुसरो के दिल को भी तोल दे ...
By
Kapil Kumar
No comments:
Post a Comment