किस किस बात के
शिकवे कितनी बार करूँ
किस किस दर्द की
शिकायत किस किस के पास करूँ
हैं मेरे सीने
में जख़्म ही कुछ ज्यादा
किस किस की
मैं अब दवा करूँ ....
अब तो कुछ आदत
सी हो गई है
इन ज़ख्मों को
सीने में संजो कर रखने की
है यह मुश्किल
अब मेरी ,किस को अपने पास रखूं
और किस किस को
अपने से दूर करूँ ....
जब भी गिरता
है कोई अश्क तेरा
मेरा दिल खून
के हजार आंसू रोता है
तू मेरी
मोहब्बत नहीं इबादत है
तेरे सजदे के
बिना मेरा कब सवेरा होता है .....
कैसे काटू
मैं यह दिन जुदाई के
बड़ी मुश्किल
से यह दिल बहल कर सोता है
जिस्म को दे
दूँ झूठी तस्सली तेरे आने की
पर अफ़सोस ,
रूह को नहीं अब होता भरोसा है ...
मेरी आशिकी को
जिस्म की चाह मत समझना
मेरी मोहब्बत
को दीवानगी का आलम मत कहना
यह फितूर नहीं
है अब मेरे बस का
क्यों हर आहट
पर तेरे आने का अंदेशा होता है ....
By
Kapil Kumar
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