इस दर्द की शायद , अब कोई दवा नहीं ?
गुजर गया इश्क का, कारवां कबका , उसका भी कोई निशां नहीं
सजाता हूँ रोज , चिता अरमानो की , पर गम है की जलता ही नहीं
मेरे इस दर्द की शायद अब , कोई दवा नहीं.....
गमो के बादलो
से ,
उम्मीद करता हूँ खुशियो का बरसना
जीवन के वीरान रेगिस्तान में , ढूंडता हूँ मोहब्बत का झरना
खुली आँखों से देखता हूँ , मैं भी रोज इक नया सपना
पूछता हूँ राह उनसे , जिन्हें खुद अपना पता नहीं
मेरी इन उम्मीदों की भी , कोई इंतहा नहीं
मेरे इस दर्द की शायद अब ,
कोई
दवा नहीं....
सूखे टूटे
पत्तो पर लिखता रहा, प्रेम
के नए नए तराने
उन्हें भी उड़ा ले गई, वक्त की
आंधी
, आधे अधूरे
रह गए अफ़साने
उन भटके
पत्तो को , समेटने की ,
मेरे पास कला नहीं
मेरे इस दर्द की शायद अब ,
कोई दवा नहीं.....
बनाने चला था उनसे रिश्ते , जिन्हे जीने की चाह ही नहीं
रखा था दिल जिसके कदमो में , उसे खुद की परवाह ही नहीं
बन गए ऐसे अनजाने , जैसे मुझसे बड़ा कोई बेगाना ही नहीं
रखा था दिल जिसके कदमो में , उसे खुद की परवाह ही नहीं
बन गए ऐसे अनजाने , जैसे मुझसे बड़ा कोई बेगाना ही नहीं
पत्थरो के इंसानो में , अब शीशे का दिल मिलता ही नहीं
मेरे इस दर्द की शायद
अब , कोई दवा नहीं....
By
Kpail Kumar
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